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सिंदूरी धूप

मेरे हिस्से की धूप को
मांग में तुम अपनी रख लो
कुछ रंग सिंदूरी हो जाए
फिर लौटा देना मुझको
मैं ओढ़ लूंगा तब इसको
अपनी रातों के साए पर।

टूटा दिल

जब मांझी ख़ुद ही पतवार जला दे
कौन दिशा पहुंचे फिर कश्ती साहिल को।

रात के आँचल से

जो रात के आँचल से निकल के
दबे पाँव उतरा था
मेरे मन के आँगन में
और ठहर गया था दो पल को
मेरी अधमुंदी पलकों पे।

यादों की मिट्टी

क्यूं ज़ुबां ठिठक जाती है मेरी रू-ब-रू उनके मुझे क्या मालूम
कितना कुछ कहने को है मेरे दिल में उन्हें क्या मालूम!

माँ की लाड़ली

मैं झनकार हूँ जीवन की
मैं फुहार हूँ सावन की
मैं चिड़िया नंदन वन की
कोयल हूँ मैं उपवन की!

ख़ामोश मुंतज़िर

ख़ामोश रहता हूँ
मगर बेख़बर नहीं मैं
मुंतज़िर हूँ तेरा
पर बेसबर नहीं मैं।

चाँद के उस पार

नक़्श किसी के प्यार के
बिखरे हुए हैं जां-ब-जां
मेरी ज़िंदगी के पन्नों पर।

एक पल

वो एक पल अकेला
जो संग हमारे चल रहा
बस वही पल अपना है
उसके सिवा कुछ भी नहीं!

मेरी पहचान

तय किए थे जिन पर
उम्र के मरहले कई,
ग़र्द उन्हीं राहों की
जम गई है माज़ी के
पीले पड़े दरीचों पर...