मेरी पहचान

तय किए थे जिन पर
उम्र के मरहले कई,
ग़र्द उन्हीं राहों की
जम गई है माज़ी के
पीले पड़े दरीचों पर...

वक़्त की तहों के नीचे
दफ़्न है शायद आज भी
मेरी एक तस्वीर पुरानी,
धूल में लिपटी हुई...

वही है भूली-बिसरी
आखिरी निशानी वाहिद
मेरी शख्सियत की,
और मेरी पहचान है...

वरना मुझको याद नहीं,
इन उम्र से लम्बी राहों पर
छूट गया कब और कहाँ,
मुझ से मेरा हाथ!

*माज़ी = अतीत (Past)
*दरीचा = खिड़की, झरोखा (Window)
*वाहिद = इकलौती (Singular, Unique)

© गगन दीप

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